नफ़रत की दीवार जब भी तुम गिराओगे ।

नफ़रतों की ये दिवार जब भी तुम गिराओगे,
उसके स्नेह की दबी लाश जरूर पाओगे।

कहना चाहोगे तब तुम कुछ सहसा,
पर कुछ कहने सुनने के लिए उसे ना पाओगे।

फिर थोड़ा सोचोगे,
थोड़ा पछताओगे।
मुड़ कर जो देखोगे,
तो पिछे तनहा उसको हीं पाओगे।

लौटने को तुम वापस फिर
मचल-मचल से जाओगे।
पर जो ढूंढोगे रस्ता,
खुद को भटका-भटका पाओगे।

झल्लाकर तब तुम
किसी किनारे रूक जाओगे।
प्रेम की दरिया टटोलोगे खुद में,
और स्वंय को सूखा-सूखा पाओगे।

फिर एक ठंडी सांस ले तुम
आगे को बढ़ जाओगे,
नफ़रत की गलती ना कर,
प्राण में प्रणय बसाओगे।

अब सुन लो बात मेरी,
तब तुम बेहतर हो जाओगे।
थोड़े संयम, थोड़े धीरज से
हौले-हौले भर जाओगे।
मोह-माया से ऊपर उठ कर,
एक नया व्यवहार लाओगे।
नफ़रतों की ये दिवार जब भी तुम गिराओगे।

©Dr.Kavita

33 thoughts on “नफ़रत की दीवार जब भी तुम गिराओगे ।

      1. You are always welcome.
        We are together here in this world of bloggers. Here we can express our inner voices. We love reading those inner voices in the form of poetry, paragraphs, essays and so on.
        Looking for your next poetry.
        😀👍🙏🙏

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  1. ज़िन्दगी की शिक्षा है ये कविता 👌🌷ऐसा ही हम , दुश्मनी करना , हमारे परिवारों से और दोस्तों से
    होते रहते है 👍🏻🌷😊 ये प्रक्रिया की दीवार गिराना इतना आसान नहीं , ये हमारे मन की दर्द सह नहीं
    सकता हम से इसलिए कुछ समय हम अपने मन को शांत कर धीरे से दुश्मनी को हटाना है , ये मेरी कोमेंड 👏🌹😊

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  2. स्वार्थ जब भी सिर चढ़ तांडव करता है,
    गुलशन प्रेम का तब-तब उजड़ते देखा है,
    बुलंदी स्वार्थ को मिल जाए बेशक मगर,
    स्वार्थ को कब किसने मुस्कुराते देखा है?

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