मैं तुम्हें नहीं जानती।

मैं तुम्हें नहीं जानती।
और शायद कभी जान भी न सकूंगी।
क्योंकि तुम्हारे चेहरे की मुस्कान,
तुम्हारे अंदर की वेदना कभी बाहर आने नहीं देगी।
मैं तुम्हें इसलिए भी नहीं जान पाऊँगी क्योंकी
तुम किसी और राह के मुसाफिर हो
और तुम्हारा अपनी राह छोड़,
मेरा हमराही हो जाना कभी मुमकिन ना होगा।
एक वजह और है मेरा तुम्हें ना जानने की
कि हम बहुत मिलते-जुलते से तो हैं,
पर हम कभी मिले नहीं।
तो हां,
मैं कह सकती हूँ कि
मैं तुम्हें नहीं जानती।

©Dr.Kavita

23 thoughts on “मैं तुम्हें नहीं जानती।

  1. एक ख़ूबसूरत कविता 👌🌷मन की सच बहुत सरलता से लिखी है कि कुछ भी दूसरे पक्ष से
    न सुनना चाहती है क्योंकि जानने से कुछ नहीं कर पाता , ठीक है 👍🏻🙏🌷 बधाइयाँ ♥️💐

    Liked by 3 people

  2. बेहतरीन सोच। उम्दा रचना।

    रोने से गम दूर होते तो हम भी रो लेते,
    मेरे मुस्कुराने से इतना हैरान क्यूँ है,
    ऐ जिंदगी,क्या हुआ ?
    तूँ इतना परेशान क्यूँ है?

    Liked by 1 person

Leave a comment